अपनी कलम से✍️
भारतीय संस्कृति में सिंदूर नारी के सम्मान, सौभाग्य और वैवाहिक विश्वास का प्रतीक रहा है। यह केवल एक रंग नहीं, बल्कि पति के जीवन, सुरक्षा और प्रेम का सांकेतिक आश्वासन है। हिंदू रीति-रिवाज में यह परंपरा रही है कि पत्नी की मांग में सिंदूर सिर्फ पति द्वारा भरा जाता है यह उनका निजी, आत्मिक और पारिवारिक रिश्ता होता है। परंतु आज जिस प्रकार सिंदूर भेजो जैसे कार्यक्रमों को राजनीतिक प्रचार का माध्यम बनाया जा रहा है, वह न केवल हमारी संस्कृति की गंभीर अवमानना है, बल्कि स्त्री अस्मिता के साथ क्रूर मज़ाक भी है। क्या अब राजनीति पति की जगह लेने लगी है? क्या अब कोई दल यह तय करेगा कि किसकी मांग में सिंदूर कब और कैसे पहुंचेगा यह पहला अवसर है जब हिंदू संस्कृति की मर्यादा को जनसंपर्क अभियान में बदल दिया गया है। सिंदूर जो कभी रिश्तों की गरिमा का प्रतीक था, आज राजनीतिक पोस्टरों और पैकेट्स में बांटा जा रहा है।
स्त्री की असल स्थिति पर नज़र डालें तो तस्वीर और भी भयावह है। आज भारत की महिलाएं बलात्कार, घरेलू हिंसा, दहेज, अपहरण, यौन शोषण जैसी घटनाओं की शिकार हो रही हैं। वे न्याय के लिए थानों, अस्पतालों और अदालतों के चक्कर लगा रही हैं। छोटे शहरों से लेकर राजधानी तक, महिलाएं सुरक्षा की गारंटी नहीं, सिर्फ संवेदनशीलता की झूठी घोषणाएं पा रही हैं। क्या सिंदूर भेजने मात्र से उन दरिंदों की सोच बदलेगी जो बच्चियों पर जरा भी रहम नहीं करते
क्या जिन बेटियों को न्याय नहीं मिला, उनकी मांग में यह सिंदूर सुकून भर सकेगा सरकारें अगर वाकई महिला सशक्तिकरण के प्रति गंभीर होती, तो कानूनों का कड़ाई से पालन, पीड़िताओं की तत्काल सुनवाई, महिला शिक्षा और रोजगार पर ध्यान देतीं। लेकिन अफसोस है कि स्त्रियों की पीड़ा को प्रतीकों में छिपा कर, राजनीति की नई स्क्रिप्ट लिखी जा रही है। महिला को अब प्रतीकों की नहीं, अब उन्हें नीतियों की जरूरत है। उसकी मांग में सिंदूर नहीं, उसकी आंखों में सम्मान चाहिए । नारी शक्ति के नाम पर वोट नहीं, न्याय दीजिए।